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नादान दिल-फ़रेब मोहब्बत न खा कभी | शाही शायरी
nadan dil-fareb mohabbat na kha kabhi

ग़ज़ल

नादान दिल-फ़रेब मोहब्बत न खा कभी

रिफ़अत सुलतान

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नादान दिल-फ़रेब मोहब्बत न खा कभी
दुनिया में किस ने की है किसी से वफ़ा कभी

ऐसा भी इत्तिफ़ाक़ जुनूँ में हुआ कभी
मैं हँसते हँसते सोच के कुछ रो पड़ा कभी

बैठा हूँ इस उमीद पे इक रहगुज़ार पर
ले आए इस तरफ़ तुझे शायद ख़ुदा कभी

ऐ दिल ये मेरा हुस्न-ए-समाअत न हो कहीं
तू ने भी क्या सुनी है वो आवाज़-ए-पा कभी

उस रश्क-ए-गुल के साथ गई थी ख़िराम को
फिर लौट कर इधर नहीं आई सबा कभी

'रिफ़अत' ग़मों की तेज़ हवाओं के बावजूद
हम ने चराग़ दिल का न बुझने दिया कभी