ना-शनासी का हमेशा ग़म रहा
आइना भी अपना ना-महरम रहा
आग है उस पर है ये बे-शो'लगी
अपने जलने का अजब आलम रहा
सारे ऊँचे घर हवा की ज़द में थे
मेरा मलबा था जो मुस्तहकम रहा
मैं भी सैल-ए-आरज़ू में बह गया
वो भी ग़र्क़-ए-गर्मी-ए-शबनम रहा
हम गिरे भी तो अना के ग़ार में
टूटते पर भी वही दम-ख़म रहा
अब है 'हाली' बे-नियाज़ी का ख़ला
अब कहाँ एहसास-ए-बेश-ओ-कम रहा
ग़ज़ल
ना-शनासी का हमेशा ग़म रहा
अलीमुल्लाह हाली