ना-सज़ा आलम-ए-इम्काँ में सज़ा लगता है
ना-रवा भी किसी मौक़े पे रवा लगता है
यूँ तो गुलशन में हैं सब मुद्दई-ए-यक-रंगी
बावजूद इस के हर इक रंग जुदा लगता है
कभी दुश्मन तो कभी दोस्त कभी कुछ भी नहीं
मुझे ख़ुद भी नहीं मालूम वो क्या लगता है
इस की बातों में हैं अंदाज़ ग़लत सम्तों के
हो न हो ये तो कोई राह-नुमा लगता है
न हटा इस को मिरे जिस्म से ऐ जान-ए-हयात
हाथ तेरा मिरे ज़ख़्मों को दवा लगता है
दूर से ख़ुद मिरी सूरत मुझे लगती है भली
जाने क्यूँ पास से हर शख़्स बुरा लगता है
रोकता हूँ तो ये रुकता ही नहीं है 'एजाज़'
मुझे हर रोज़-ओ-शब-ए-वक़्त हवा लगता है

ग़ज़ल
ना-सज़ा आलम-ए-इम्काँ में सज़ा लगता है
एजाज़ सिद्दीक़ी