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ना-रसाई मक़ाम होती है | शाही शायरी
na-rasai maqam hoti hai

ग़ज़ल

ना-रसाई मक़ाम होती है

मधुकर झा ख़ुद्दार

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ना-रसाई मक़ाम होती है
नीम-ए-शब-जाँ तमाम होती है

शम्स का हम कहा नहीं सुनते
छाँव में रिंद शाम होती है

ऐसा उस ने किया मुझे कामिल
बज़्म-ए-गुलज़ार आम होती है

जब गली में तिरी ख़िलाफ़त है
राह अर्ज़-ए-क़याम होती है

दार 'ख़ुद्दार' चल पड़ा ख़ुद ही
अब क़ज़ा उस के नाम होती है