ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा और ही कुछ है
मंसूर अनल-हक़ की जज़ा और ही कुछ है
क्या हम से मुसाफ़िर को क़रार आ भी सकेगा
मंज़िल कोई मंज़िल का पता और ही कुछ है
गिरने से भी दिल पर कभी चोट आई किसी को
मा'लूम ये होता है हुआ और ही कुछ है
दुश्नाम-तराज़ी ही नहीं रंज का बाइ'स
मिल बैठ के देखो तो गिला और ही कुछ है
झमपीर में पाई है फ़क़त आबला-पाई
मस्क़त ने तो 'मंज़र' को दिया और ही कुछ है

ग़ज़ल
ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा और ही कुछ है
जावेद मंज़र