ना-गुज़ीर-ए-रिश्तगी सा है तो हो
वर्ना मुझ से क्या इलाक़ा है तो हो
वो मुझे देखे न मैं पाऊँ उसे
अब कोई मेरा शनासा है तो हो
पुर-कशिश हैं रास्ते के पेच-ओ-ख़म
चैन पाने का ठिकाना है तो हो
सामने हैं आसमानी वुसअतें
बे-ज़मीनी का ज़माना है तो हो
चेहरा-ए-एहसास पर है ताज़गी
आदमी होना पुराना है तो हो
नाज़ुकी इक गुल-बदन की साथ है
अब अगर पहलू में काँटा है तो हो
अपनी बनती ही नहीं है 'शाह' से
आदमी ये शख़्स अच्छा है तो हो
ग़ज़ल
ना-गुज़ीर-ए-रिश्तगी सा है तो हो
शाह हुसैन नहरी