न ज़िंदा न मुर्दा न दुनिया न दीं का
मुझे तू ने ज़ालिम न रक्खा कहीं का
अबस इम्तिहाँ में लगाते हो वक़्फ़ा
भरोसा है क्या मेरी जान-ए-हज़ीं का
मुझे घर में गर्दिश है पतली की सूरत
ये एजाज़ है चश्म-ए-सेहर-आफ़रीं का
पुराना न फ़ित्ना तिरे घर से उट्ठा
नया आसमाँ है मगर इस ज़मीं का
कभी मेरे तन में कभी उस के घर में
यही शग़्ल है मेरी जान-ए-हज़ीं का
ग़ज़ब है मिरी उस से तकरार-ए-वादा
सितम है जो मौक़ा मिला अब नहीं का
सुना तू ने 'आक़िल' अजब रात गुज़री
मोहब्बत का मज़कूर निकला कहीं का
ग़ज़ल
न ज़िंदा न मुर्दा न दुनिया न दीं का
मीर मोहम्मद सुल्तान अाक़िल