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न ज़िंदा न मुर्दा न दुनिया न दीं का | शाही शायरी
na zinda na murda na duniya na din ka

ग़ज़ल

न ज़िंदा न मुर्दा न दुनिया न दीं का

मीर मोहम्मद सुल्तान अाक़िल

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न ज़िंदा न मुर्दा न दुनिया न दीं का
मुझे तू ने ज़ालिम न रक्खा कहीं का

अबस इम्तिहाँ में लगाते हो वक़्फ़ा
भरोसा है क्या मेरी जान-ए-हज़ीं का

मुझे घर में गर्दिश है पतली की सूरत
ये एजाज़ है चश्म-ए-सेहर-आफ़रीं का

पुराना न फ़ित्ना तिरे घर से उट्ठा
नया आसमाँ है मगर इस ज़मीं का

कभी मेरे तन में कभी उस के घर में
यही शग़्ल है मेरी जान-ए-हज़ीं का

ग़ज़ब है मिरी उस से तकरार-ए-वादा
सितम है जो मौक़ा मिला अब नहीं का

सुना तू ने 'आक़िल' अजब रात गुज़री
मोहब्बत का मज़कूर निकला कहीं का