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न वो ताएरों का जमघट न वो शाख़-ए-आशियाना | शाही शायरी
na wo taeron ka jamghaT na wo shaKٓH-e-ashiyana

ग़ज़ल

न वो ताएरों का जमघट न वो शाख़-ए-आशियाना

दानिश फ़राही

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न वो ताएरों का जमघट न वो शाख़-ए-आशियाना
तुम इसे ख़िज़ाँ कहोगे कि बहार का ज़माना

मैं वफ़ाओं का हूँ पैकर मिरा जज़्ब-ए-मुख़्लिसाना
मुझे आज़मा ले हमदम जो तू चाहे आज़माना

तू मुझे तबाह कर दे तू मिरा निशाँ मिटा दे
न करूँगा मैं गवारा मगर अपना सर झुकाना

जो उसे कोई सुनेगा तो भला यक़ीं करेगा
ये जनाब-ए-शैख़ हमदम ये दर-ए-शराब-ख़ाना

ये अता-ए-इश्क़ ही है कि बना हूँ मैं ग़ज़ल-ख़्वाँ
न था इस के पहले 'दानिश' मिरा ज़ौक़ शाइ'राना