न तो मैं हूर का मफ़्तूँ न परी का आशिक़
ख़ाक के पुतले का है ख़ाक का पुतला आशिक़
सख़्त-जानी से फ़क़त मैं ही रहा हूँ ज़िंदा
मर गए वर्ना ग़म-ए-हिज्र से किया क्या आशिक़
सर्व-ओ-क़ुमरी गुल-ओ-बुलबुल हैं उसी के जल्वे
आप माशूक़ है वो आप है अपना आशिक़
इश्क़-ए-कामिल में तो हाजत अमल-ए-हुब की नहीं
क़ैस माशूक़ बना हो गई लीला आशिक़
बंद आँखें थीं अभी मुझ को जो लाया सय्याद
न तो हूँ सर्व का वारफ़्ता न गुल का आशिक़
पहले ही कातिब-ए-तक़दीर ने लिक्खा था हमें
तेरा बंदा तिरा फ़िदवी तिरा रुस्वा आशिक़
आरज़ू है मिरी मय्यत पे वो रोए कह कर
है ये 'आजिज़' मिरा शैदा मिरा प्यारा आशिक़
ग़ज़ल
न तो मैं हूर का मफ़्तूँ न परी का आशिक़
पीर शेर मोहम्मद आजिज़