न तेज़-रौ थे न जोइंदा-ए-मक़ाम थे हम
वो हम-सफ़र था तो कैसे सबा-ख़िराम थे हम
हुजूम-ए-संग में क्या हो सुख़न-तराज़ कोई
वो हम-सुख़न था तो क्या क्या न ख़ुश-कलाम थे हम
बहुत क़रीब से देखे जो उस के लब तो खुला
कि एक उम्र से क्यूँ इतने तिश्ना-काम थे हम
वो सारा दौर था रुस्वाइयों से पहले का
कि शहर-यार थे यारों में नेक-नाम थे हम
ये मेहरबानी भी हम पे रही मोहब्बत की
कि ख़ास रहते हुए भी बहुत ही आम थे हम
विसाल का कोई इम्कान ही न था 'ख़ावर'
वो ज़र-निगार-ए-सहर था ग़ुबार-ए-शाम थे हम

ग़ज़ल
न तेज़-रौ थे न जोइंदा-ए-मक़ाम थे हम
ख़ावर अहमद