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न तेज़-रौ थे न जोइंदा-ए-मक़ाम थे हम | शाही शायरी
na tez-rau the na joinda-e-maqam the hum

ग़ज़ल

न तेज़-रौ थे न जोइंदा-ए-मक़ाम थे हम

ख़ावर अहमद

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न तेज़-रौ थे न जोइंदा-ए-मक़ाम थे हम
वो हम-सफ़र था तो कैसे सबा-ख़िराम थे हम

हुजूम-ए-संग में क्या हो सुख़न-तराज़ कोई
वो हम-सुख़न था तो क्या क्या न ख़ुश-कलाम थे हम

बहुत क़रीब से देखे जो उस के लब तो खुला
कि एक उम्र से क्यूँ इतने तिश्ना-काम थे हम

वो सारा दौर था रुस्वाइयों से पहले का
कि शहर-यार थे यारों में नेक-नाम थे हम

ये मेहरबानी भी हम पे रही मोहब्बत की
कि ख़ास रहते हुए भी बहुत ही आम थे हम

विसाल का कोई इम्कान ही न था 'ख़ावर'
वो ज़र-निगार-ए-सहर था ग़ुबार-ए-शाम थे हम