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न शिकवे हैं न फ़रियादें न आहें हैं न नाले हैं | शाही शायरी
na shikwe hain na fariyaaden na aahen hain na nale hain

ग़ज़ल

न शिकवे हैं न फ़रियादें न आहें हैं न नाले हैं

राही शहाबी

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न शिकवे हैं न फ़रियादें न आहें हैं न नाले हैं
तुम्हारे चाहने वाले भी कैसी आन वाले हैं

उधर दुनिया इधर अहल-ए-वफ़ा अब देखिए क्या हो
उधर काँटे ही काँटे हैं इधर छाले हैं छाले हैं

उन्हें दामन में चुन लो या गिरा दो अश्क-ए-ग़म मेरे
तुम्हारी ही अमानत थे तुम्हारे ही हवाले हैं

सहर से शाम होने आ रही है ऐ दिल-ए-नादाँ
न वो जब आने थे न वो अब आने वाले हैं

किसी की याद अश्कों का तसलसुल ले के आई है
चराग़ाँ ही चराग़ाँ है उजाले ही उजाले हैं

रक़ीबों का हमें क्या ग़म तुम्हीं पछताओगे इक दिन
कि अपनी आस्तीनों में ये तुम ने साँप पाले हैं

वफ़ा की सख़्त राहें और मुसाफ़िर सख़्त-जाँ उन के
ये राहें भी अनोखी हैं ये राही भी निराले हैं

ये कैसी सुब्ह-ए-नौ आई कि जिस पर शाम हँसती है
अँधेरे जिस से शर्मिंदा हों ये कैसे उजाले हैं

सितम देखो ज़बानें खोलने का वक़्त है 'राही'
मगर अहल-ए-ज़बाँ ख़ामोश हैं होंटों पे ताले हैं