न शरह-ए-शौक़ न तस्कीन जान-ए-ज़ार में है
मज़ा जो अपनी मोहब्बत के ए'तिबार में है
अभी से होश न खो बैठ ऐ नसीम-ए-चमन
अभी तो एक शिकन ज़ुल्फ़-ए-ताबदार में है
ख़ुद अपने इश्क़ की रंगीनियों में गुम हो जा
नहीं कुछ और अगर ये तो इख़्तियार में है
ये महवियत कोई देखे कि मिस्ल-ए-आईना
जुनून-ए-ख़ुद-निगरी अपने इंतिज़ार में है
न है नसीब मिली और ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ मिली
सुपुर्दगी की जो इक शान इख़्तियार में है
हरीफ़-ए-बज़्म-ए-तमाशा तिरी निगाह नहीं
वगरना हुस्न तो ख़ुद तेरे इंतिज़ार में है
'असर' मुझे है वहाँ रुख़्सत-ए-नवा-संजी
कि नग़्मा इक लब-ए-ख़ामोश जब दयार में है
ग़ज़ल
न शरह-ए-शौक़ न तस्कीन जान-ए-ज़ार में है
असर लखनवी