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न शरह-ए-शौक़ न तस्कीन जान-ए-ज़ार में है | शाही शायरी
na sharh-e-shauq na taskin jaan-e-zar mein hai

ग़ज़ल

न शरह-ए-शौक़ न तस्कीन जान-ए-ज़ार में है

असर लखनवी

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न शरह-ए-शौक़ न तस्कीन जान-ए-ज़ार में है
मज़ा जो अपनी मोहब्बत के ए'तिबार में है

अभी से होश न खो बैठ ऐ नसीम-ए-चमन
अभी तो एक शिकन ज़ुल्फ़-ए-ताबदार में है

ख़ुद अपने इश्क़ की रंगीनियों में गुम हो जा
नहीं कुछ और अगर ये तो इख़्तियार में है

ये महवियत कोई देखे कि मिस्ल-ए-आईना
जुनून-ए-ख़ुद-निगरी अपने इंतिज़ार में है

न है नसीब मिली और ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ मिली
सुपुर्दगी की जो इक शान इख़्तियार में है

हरीफ़-ए-बज़्म-ए-तमाशा तिरी निगाह नहीं
वगरना हुस्न तो ख़ुद तेरे इंतिज़ार में है

'असर' मुझे है वहाँ रुख़्सत-ए-नवा-संजी
कि नग़्मा इक लब-ए-ख़ामोश जब दयार में है