न सैल-ए-रंग न सय्यारा माहताब मिरा
है मेरे सीने में अँगारा माहताब मिरा
छटी उफ़ुक़ की सियह-गर्द तो दिखाई दिया
पयाम-ए-वस्ल का हरकारा माहताब मिरा
ख़ला में मुज़्तरिब-ओ-बे-क़याम मेरी तरह
ये मेरे दश्त का बंजारा माहताब मिरा
ख़ुनुक हवाओं का मस्कन बिसात-ए-ख़ाक मिरी
लहू की आँच का गहवारा माहताब मिरा
चिहार सम्त मरे आब-ज़ार और इस में
ग़ुरूब होता हुआ तारा माहताब मिरा
ख़ुद अपने नूर से करता है इक्तिसाब-ए-जमाल
वो एक शोला-ए-आवारा माहताब मिरा
तमाम रात मुख़ातिब रहा मरे दिल से
वही सुकूत का फव्वारा माहताब मिरा
ज़मीं पे धूम मिरे ज़ख्म-ए-ना-शगुफ़्ता की
फ़लक पे हासिल-ए-नज़्ज़ारा माहताब मिरा
मैं जुस्तुजू में उसी कूज़ा-गर की हूँ 'इशरत'
है जिस के चाक का फ़न-पारा माहताब मिरा
ग़ज़ल
न सैल-ए-रंग न सय्यारा माहताब मिरा
इशरत ज़फ़र