न सही कुछ मगर इतना तो किया करते थे
वो मुझे देख के पहचान लिया करते थे
आख़िर-ए-कार हुए तेरी रज़ा के पाबंद
हम कि हर बात पे इसरार किया करते थे
ख़ाक हैं अब तिरी गलियों की वो इज़्ज़त वाले
जो तिरे शहर का पानी न पिया करते थे
अब तो इंसान की अज़्मत भी कोई चीज़ नहीं
लोग पत्थर को ख़ुदा मान लिया करते थे
दोस्तो अब मुझे गर्दन-ज़दनी कहते हो
तुम वही हो कि मिरे ज़ख़्म सिया करते थे
हम जो दस्तक कभी देते थे सबा की मानिंद
आप दरवाज़ा-ए-दिल खोल दिया करते थे
अब तो 'शहज़ाद' सितारों पे लगी हैं नज़रें
कभी हम लोग भी मिट्टी में जिया करते थे
ग़ज़ल
न सही कुछ मगर इतना तो किया करते थे
शहज़ाद अहमद