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न साक़ी है न मीना है न बर में यार-ए-जानी है | शाही शायरी
na saqi hai na mina hai na bar mein yar-e-jaani hai

ग़ज़ल

न साक़ी है न मीना है न बर में यार-ए-जानी है

मीर शेर अली अफ़्सोस

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न साक़ी है न मीना है न बर में यार-ए-जानी है
हक़ीक़त में नहीं जीते ब-सूरत ज़िंदगानी है

नवाज़िश पर मिज़ाज आया जहाँ दीं गालियाँ लाखों
करम है आप का तुर्फ़ा अजाइब मेहरबानी है

सुनो टुक गोश-ए-दिल से क़िस्सा-ए-जाँ सोज़ को मेरे
कि जग-बीती नहीं है आप-बीती ये कहानी है

अबस है सोच तुझ को नामा-बर दे शौक़ से मुझ को
कोई झिड़की कोई गाली अगर उस की ज़बानी है

तू अपने हाथ का छल्ला जो हर इक से छुपाता है
बता 'अफ़सोस' किस पर्दा-नशीं की ये निशानी है