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न रहा गुल न ख़ार ही आख़िर | शाही शायरी
na raha gul na Khaar hi aaKHir

ग़ज़ल

न रहा गुल न ख़ार ही आख़िर

मीर हसन

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न रहा गुल न ख़ार ही आख़िर
इक रहा हुस्न-ए-यार ही आख़िर

अब जो छूटे भी हम क़फ़स से तो क्या
हो चुकी वाँ बहार ही आख़िर

आतिश-ए-दिल पे आब ले दौड़ा
दीदा-ए-अश्क-बार ही आख़िर

ज़िद से नासेह की मैं ने कर डाला
जेब को तार तार ही आख़िर

क्यूँ न हूँ तेरे दर पे होना है
एक दिन तो ग़ुबार ही आख़िर

काम आया न जाए शम-ए-मज़ार
ये दिल-ए-दाग़-दार ही आख़िर

शम्अ-रू पर मिसाल-ए-परवाना
हो गए हम निसार ही आख़िर

वो न आया इधर 'हसन' अफ़सोस
रह गया इंतिज़ार ही आख़िर