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न पूरे हुए बा-ख़ुदा बेचते हैं | शाही शायरी
na pure hue ba-KHuda bechte hain

ग़ज़ल

न पूरे हुए बा-ख़ुदा बेचते हैं

मरयम नाज़

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न पूरे हुए बा-ख़ुदा बेचते हैं
यूँ ख्वाब-ओ-ख़यालोंं को जा बेचते हैं

नहीं कोई मुख़्लिस ज़माने में वर्ना
अता बेचते थे रिदा बेचते हैं

तबीबों की सारी है अपनी कहानी
वफ़ा बेचते हैं शिफ़ा बेचते हैं

चलो तुम भी हम से ये वा'दा करो अब
क़सम खा के सारी अना बेचते हैं

ये अहल-ए-ज़माना कहाँ जानते हैं
दिलों में सुलगती सदा बेचते हैं

हुए हैं वो हम से पराए कि ऐसे
लगा के गिरा फिर क़बा बेचते हैं

सितम पे सितम वो किए जा रहे हैं
लगा के वो ज़ख़्म अब दवा बेचते हैं

नहीं होती उन से कोई बात भी तो
ये आँखों के अंधे दुआ बेचते हैं

भरे माल-ओ-दौलत से कमरे हैं ख़ाली
हवस के पुजारी कला बेचते हैं

मुकम्मल हो तेरा फ़ुनून-ए-सफ़र ये
हाँ साग़र से कह दो दुआ बेचते हैं

जो देखा अँधेरा तो राहों में 'मरियम'
अमावस की शब में ज़िया बेचते हैं