न पूछो कैसे शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है
भला हो दिल का बहुत बे-क़रार गुज़री है
हज़ार मस्लिहतें जिस में कार-फ़रमा हों
वो इक निगाह-ए-करम हम पे बार गुज़री है
है इस्तिलाह-ए-मोहब्बत में जिस का नाम जुनूँ
वो एक रस्म बड़ी पाएदार गुज़री है
ज़रूर उस ने तिरे पैरहन को चूमा था
जो इस तरफ़ से सबा मुश्क-बार गुज़री है
वो बाग़बाँ भी कोई बाग़बाँ है जिस की हयात
रहीन-मिन्नत-ए-फ़स्ल-ए-बहार गुज़री हे
लुटा है कौन ग़रीब-उद-दयार रस्ते में
ये किस के ग़म में सबा सोगवार गुज़री है
निसार उस पे हूँ मैं जिस की ज़िंदगी 'साक़ी'
बशर के औज की आईना-दार गुज़री है
ग़ज़ल
न पूछो कैसे शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है
औलाद अली रिज़वी