न पूछ ऐ मिरे ग़म-ख़्वार क्या तमन्ना थी 
दिल-ए-हज़ीं में भी आबाद एक दुनिया थी 
हर इक नज़र थी हमारे ही चाक-दामाँ पर 
हर एक साअत-ए-ग़म जैसे इक तमाशा थी 
हमें भी अब दर ओ दीवार घर के याद आए 
जो घर में थे तो हमें आरज़ू-ए-सहरा थी 
कोई बचाता हमें फिर भी डूब ही जाते 
हमारे वास्ते ज़ंजीर मौज-ए-दरिया थी 
बग़ैर सम्त के चलना भी काम आ ही गया 
फ़सील-ए-शहर के बाहर भी एक दुनिया थी 
तिलिस्म-ए-होश-रुबा थे वो मंज़र-ए-हस्ती 
फ़ज़ा-ए-दीदा-ओ-दिल जैसे ख़्वाब आसा थी 
कोई रफ़ीक़-ए-सफ़र था न राहबर कोई 
जुनूँ की राह में 'गुलनार' जादा-पैमा थी
        ग़ज़ल
न पूछ ऐ मिरे ग़म-ख़्वार क्या तमन्ना थी
गुलनार आफ़रीन

