न नींद और न ख़्वाबों से आँख भरनी है
कि उस से हम ने तुझे देखने की करनी है
किसी दरख़्त की हिद्दत में दिन गुज़ारना है
किसी चराग़ की छाँव में रात करनी है
वो फूल और किसी शाख़ पर नहीं खुलना
वो ज़ुल्फ़ सिर्फ़ मिरे हाथ से सँवरनी है
तमाम नाख़ुदा साहिल से दूर हो जाएँ
समुंदरों से अकेले में बात करनी है
हमारे गाँव का हर फूल मरने वाला है
अब उस गली से वो ख़ुश्बू नहीं गुज़रनी है
तिरे ज़ियाँ पे मैं अपना ज़ियाँ न कर बैठूँ
कि मुझ मुरीद का मुर्शिद 'उवैस-क़रनी' है

ग़ज़ल
न नींद और न ख़्वाबों से आँख भरनी है
तहज़ीब हाफ़ी