न मंज़िल है न मंज़िल का निशाँ है
हमारा कारवाँ फिर भी रवाँ है
उसी डाली पे अपना आशियाँ है
तड़पती जिस जगह बर्क़-ए-तपाँ है
हुई हैं कारगर ग़ैरों की चालें
तिरे लब पर नहीं है अब न हाँ है
रहे सय्याद हर दम जिस चमन में
वहाँ ग़म की हिकायत जावेदाँ है
सुरूर-ओ-नग़्मा हैं अब कल की बातें
यहाँ तो अब फ़क़त आह-ओ-फ़ुग़ाँ है
उन्हें क्यूँ रंज हो जौर-ओ-सितम पर
सितमरानी तो ख़ू-ए-महवशाँ है
नहीं इंसाँ की क़ीमत कोई 'रिफ़अत'
पुराने दौर की बात अब कहाँ है
ग़ज़ल
न मंज़िल है न मंज़िल का निशाँ है
सुदर्शन कुमार वुग्गल