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न मंज़िल है न मंज़िल का निशाँ है | शाही शायरी
na manzil hai na manzil ka nishan hai

ग़ज़ल

न मंज़िल है न मंज़िल का निशाँ है

सुदर्शन कुमार वुग्गल

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न मंज़िल है न मंज़िल का निशाँ है
हमारा कारवाँ फिर भी रवाँ है

उसी डाली पे अपना आशियाँ है
तड़पती जिस जगह बर्क़-ए-तपाँ है

हुई हैं कारगर ग़ैरों की चालें
तिरे लब पर नहीं है अब न हाँ है

रहे सय्याद हर दम जिस चमन में
वहाँ ग़म की हिकायत जावेदाँ है

सुरूर-ओ-नग़्मा हैं अब कल की बातें
यहाँ तो अब फ़क़त आह-ओ-फ़ुग़ाँ है

उन्हें क्यूँ रंज हो जौर-ओ-सितम पर
सितमरानी तो ख़ू-ए-महवशाँ है

नहीं इंसाँ की क़ीमत कोई 'रिफ़अत'
पुराने दौर की बात अब कहाँ है