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न महफ़िल ऐसी होती है न ख़ल्वत ऐसी होती है | शाही शायरी
na mahfil aisi hoti hai na KHalwat aisi hoti hai

ग़ज़ल

न महफ़िल ऐसी होती है न ख़ल्वत ऐसी होती है

शाज़ तमकनत

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न महफ़िल ऐसी होती है न ख़ल्वत ऐसी होती है
मिरे माबूद क्या जीने की सूरत ऐसी होती है

बस इक कैफ़िय्यत-ए-ख़ुद-रफ़्तगी तन्हाइयाँ अपनी
हमें मिलती है फ़ुर्सत भी तो फ़ुर्सत ऐसी होती है

ये दुनिया सर-ब-सर रंगीनियों में डूब जाती है
तिरी क़ामत की हर शय में शबाहत ऐसी होती है

दर-ओ-दीवार पर बस एक सन्नाटे की रौनक़ है
मिरे मेहमाँ से पूछो घर की जन्नत ऐसी होती है

कहाँ अपनी सियह-कारी कहाँ ये तेरी मा'सूमी
तुझे देखा नहीं जाता नदामत ऐसी होती है

कोई देखे तुझे तो अज़-सर-ए-नौ ज़िंदगी माँगे
रिवायत झूट है क़ातिल की सूरत ऐसी होती है

ये मजबूरी, मोहब्बत भीक जैसी भी गवारा है
कभी दिन रात को तेरी ज़रूरत ऐसी होती है

बिछड़ कर तुझ से मिलने की मसर्रत भूल जाता हूँ
कि मिल कर फिर बिछड़ने की अज़िय्यत ऐसी होती है