EN اردو
न मह ने कौंद बिजली की न शोले का उजाला है | शाही शायरी
na mah ne kaund bijli ki na shoale ka ujala hai

ग़ज़ल

न मह ने कौंद बिजली की न शोले का उजाला है

नज़ीर अकबराबादी

;

न मह ने कौंद बिजली की न शोले का उजाला है
कुछ इस गोरे से मुखड़े का झमकड़ा ही निराला है

वो मुखड़ा गुल सा और उस पर जो नारंजी दो-शाला है
रुख़-ए-ख़ुर्शीद ने गोया शफ़क़ से सर निकाला है

कन-अँखियों की निगह गुपती इशारत क़हर चितवन के
जो वूँ देखा तो बर्छी है जो यूँ देखा तो भाला है

कहीं ख़ुर्शीद भी छुपता है जी बारीक पर्दे में
उठा दो मुँह से पर्दे को बड़ा पर्दा निकाला है

खुले बालों से मुँह की रौशनी फूटी निकलती है
तुम्हारा हुस्न तो साहब अँधेरे का उजाला है

न झमकें किस तरह कानों में उस के हुस्न के झुमके
इधर बुंदा उधर झुमका इधर बिजली का बाला है

'नज़ीर' उस संग-दिल क़ातिल पे दा'वा ख़ून का मत कर
मियाँ जा तुझ से याँ कितनों को उस ने मार डाला है