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न माह-रू न किसी माहताब से हुई थी | शाही शायरी
na mah-ru na kisi mahtab se hui thi

ग़ज़ल

न माह-रू न किसी माहताब से हुई थी

अली मुज़म्मिल

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न माह-रू न किसी माहताब से हुई थी
हमें तो पहली मोहब्बत किताब से हुई थी

फ़रेब-ए-कुल है ज़मीं और नमूना-ए-अज़्दाद
कि इब्तिदा ही गुनाह-ओ-सवाब से हुई थी

बस एक शब की कहानी नहीं कि भूल सकें
हर एक शब ही मुमासिल इ'ताब से हुई थी

वजूद-ए-चश्म था ठहरे समुंदरों की मिसाल
नुमूद-ए-हालत-ए-दिल इक हबाब से हुई थी

जज़ा-ए-इश्क़-ए-हक़ीक़ी रही तलब अपनी
ख़ता-ए-इश्क़-ए-मजाज़ी जनाब से हुई थी

उसी से तीरा-शबी में है मंज़रों का वजूद
वो रौशनी जो मशिय्यत के बाब से हुई थी

वही तो जेहद-ए-मुसलसल की इब्तिदा थी 'अली'
जब आश्नाई क़दम की रिकाब से हुई थी