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न लज़्ज़तें हैं वो हँसने में और न रोने में | शाही शायरी
na lazzaten hain wo hansne mein aur na rone mein

ग़ज़ल

न लज़्ज़तें हैं वो हँसने में और न रोने में

नज़ीर अकबराबादी

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न लज़्ज़तें हैं वो हँसने में और न रोने में
जो कुछ मज़ा है तिरे साथ मिल के सोने में

पलंग पे सेज बिछाता हूँ मुद्दतों से जान
कभी तू आन के सो जा मिरे बिछौने में

मसक गई है वो अंगिया जो तंग बँधने से
तो क्या बहार है काफ़िर के चाक होने में

कहा मैं उस से कि इक बात मुझ को कहनी है
कहूँ मैं जब कि चलो मेरे साथ कोने में

ये बात सुनते ही जी में समझ गई काफ़िर
कि तेरा दिल है कुछ अब और बात होने में

ये सुन के बोली कि है है ये क्या कहा तू ने
पड़ा है क्यूँ मुझे दुनिया से अब तू खोने में

तो बूढ़ा मर्दुआ और बारहवाँ बरस मुझ को
मैं किस तरह से चलूँ तेरे साथ कोने में

'नज़ीर' एक वो अय्यार सुरती है काफ़िर
कभी न आवेगी वो तेरे जादू-टोने में