न कू-ए-यार में ठहरा न अंजुमन में रहा
अदा-ए-नाज़ से ये दिल सरा-ए-फ़न में रहा
हज़ारों तूफ़ाँ उठाए हैं वक़्त आने पर
लहू भी ख़ास अदा से मिरे बदन में रहा
मैं एक रंग था रंग-ए-ख़याल-ए-आवारा
किसी धनक में किसी रुत के पैरहन में रहा
अना ही थी कि न झुकने दिया कभी मुझ को
पहाड़ सर पे उठा कर भी बाँकपन में रहा
वो मैं ही था कि कोई और था नहीं मा'लूम
तमाम उम्र जो मेरे ही जान ओ तन में रहा
सफ़ीर-ए-जाँ के लिए मंज़िलें नहीं होतीं
कोई पड़ाव भी आया तो वो थकन में रहा
उठी जो सैफ़-ए-सितम बे-नियाज़-ए-मौत-ओ-हयात
क़लम-ब-दस्त खड़ा वादी-ए-सुख़न में रहा
ग़ज़ल
न कू-ए-यार में ठहरा न अंजुमन में रहा
इब्राहीम अश्क