न कुछ सवाल किया और न कुछ गिला मुझ से
अजीब शख़्स था मिल कर बिछड़ गया मुझ से
तू अपनी ज़ात में इक मंज़िल-ए-वफ़ा है मगर
मैं वो चराग़ कि रौशन है रास्ता मुझ से
किसी ने छीन ली बीनाई मेरी आँखों की
किसी ने आइना मंसूब कर दिया मुझ से
मज़ा तो जब है तिरी जुस्तुजू में जान-ए-बहार
मिरे वजूद का हो जाए सामना मुझ से
बुझा दिया तो अंधेरों ने आ के घेर लिया
जला दिया तो उलझने लगी हवा मुझ से
वो सब से छुप के मिरे घर तो आ गया लेकिन
सुपुर्दगी का तक़ाज़ा न कर सका मुझ से
जवाब कुछ भी दिया जाए ग़म नहीं 'मंज़र'
सवाल ये है कि पूछेगा क्या ख़ुदा मुझ से
ग़ज़ल
न कुछ सवाल किया और न कुछ गिला मुझ से
मंज़ूर इमकानी