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न कोई शख़्स न साया कहीं नगर में था | शाही शायरी
na koi shaKHs na saya kahin nagar mein tha

ग़ज़ल

न कोई शख़्स न साया कहीं नगर में था

शमशाद सहर

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न कोई शख़्स न साया कहीं नगर में था
बला का ख़्वाब-ए-तमाशा मिरी नज़र में था

उभरते डूबते रिश्तों की धूप छाँव में
इक अजनबी की तरह मैं भी अपने घर में था

सरों के फूल की बारिश न थम सकी आख़िर
उमडते दार का सावन मिरे नगर में था

तड़प रही थीं दरीचों में डूबती किरनें
गुज़रते वक़्त का सूरज कहीं खंडर में था

पुकार लें न कहीं धूप में घनी शाख़ें
बस एक ख़ौफ़ यही दोस्तो सफ़र में था