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न कोई रब्त ब-जुज़ ख़ामुशी ओ नफ़रत के | शाही शायरी
na koi rabt ba-juz KHamushi o nafrat ke

ग़ज़ल

न कोई रब्त ब-जुज़ ख़ामुशी ओ नफ़रत के

किश्वर नाहीद

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न कोई रब्त ब-जुज़ ख़ामुशी ओ नफ़रत के
मिलेंगे अब तो ख़ुलासे यही मोहब्बत के

मैं क़ैद-ए-जिस्म में रुस्वा तू क़ैद में मेरी
बदन पे दाग़ लिए क़ैद-ए-बे-सऊबत के

अजीब बात गिरेबाँ पे हाथ उन का है
जो तोशा-गीर-ए-तमन्ना थे हर्फ़-ए-ग़ैरत के

बस अब तो हर्फ़-ए-नदामत को सब्त-ए-दाएम दे
सबा-सिफ़त थे रिसाले ग़म-ए-मोहब्बत के

दुआ से तज़किया-ए-नफ़स तक सफ़र है बहुत
लिबास बदलोगे कितने भी अब ज़रूरत के

सियह सफ़ेद के मालिक को फ़र्क़-ए-रंग से क्या
पड़े न उस पे भी सदमे कभी हज़ीमत के

ज़माम-ए-कार-ए-जहाँ किस के हाथ है या-रब
बदल गए हैं तक़ाज़े भी आदमियत के

ज़माना दरपए-आज़ार है तो क्या 'नाहीद'
बिखरते आए हैं मोती सदा मशक़्क़त के