न खेल अब खेल तू मेरे यक़ीं से
ख़ुदा के वास्ते आ जा कहीं से
ये अच्छी आग अश्कों ने बुझाई
धुआँ उठने लगा अब हर कहीं से
उन्हीं को आसमाँ ने भी डराया
डरे से थे जो पहले ही ज़मीं से
सज़ाएँ जो मुसलसल मिल रही हैं
ख़ता कुछ हो गई होगी हमीं से
'ख़याल' अब सोच मत इतना ज़ियादा
ये कह दे हाँ मोहब्बत है तुम्हीं से

ग़ज़ल
न खेल अब खेल तो मेरे यक़ीं से
प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’