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न कमी कोई तिरे नाज़ में न कमी है ज़ौक-ए-नियाज़ में | शाही शायरी
na kami koi tere naz mein na kami hai zauq-e-niyaz mein

ग़ज़ल

न कमी कोई तिरे नाज़ में न कमी है ज़ौक-ए-नियाज़ में

ख़ालिद फ़तेहपुरी

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न कमी कोई तिरे नाज़ में न कमी है ज़ौक-ए-नियाज़ में
तो वफ़ाएँ मेरी ही पेश कर मिरे ख़ून-ए-दिल के जवाज़ में

मिरी ख़ाक में तिरी साँस है तिरी रौशनी मिरे पास है
मुझे दिल दिया सनम-आश्ना मिरा सर झुका है नमाज़ में

कभी ख़त को तेरे छुपा लिया कभी अश्क आए तो पी लिए
मिरी ज़िंदगी तो गुज़र गई इसी पर्दा-दारी-ए-राज़ में

किसी ग़ज़नवी के नसीब में कहाँ वो उरूज-ए-नियाज़ था
कई ग़ज़नवी थे जुड़े हुए इसी इक लिबास-ए-अयाज़ में

हैं तिरे सिवा भी बहुत हसीं मुझे तो नज़र से गिरा नहीं
उसी आसमान के साए में उसी ख़ाक-दान-ए-मजाज़ में

न यूँ फ़ख़्र कर न यूँ सर उठा कि ये सच है 'ख़ालिद'-ए-बे-नवा
तू ये सोच ले तू ये जान ले कि नशेब भी हैं फ़राज़ में