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न जाने क्या कमी थी चाहतों में | शाही शायरी
na jaane kya kami thi chahaton mein

ग़ज़ल

न जाने क्या कमी थी चाहतों में

त्रिपुरारि

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न जाने क्या कमी थी चाहतों में
मज़ा कुछ भी न आया रंजिशों में

मुअ'य्यन था यही मौसम मिलन का
मैं अक्सर सोचता हूँ बारिशों में

वो इक लड़की मैं जिस का हो न पाया
कमी कुछ थी न उस की मन्नतों में

जिसे तुम मेरी क़िस्मत कह रहे हो
वो कब से फिर रही है गर्दिशों में

हर इक मंज़िल पे जा के लौट आया
कमी सी खल रही थी मंज़िलों में

मिला उन को न दुश्मन मन मुताबिक़
जो पीछे रह गए थे कोशिशों में