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न जाने कितनी रिवायतें मुंहदिम हुईं हैं | शाही शायरी
na jaane kitni riwayaten munhadim huin hain

ग़ज़ल

न जाने कितनी रिवायतें मुंहदिम हुईं हैं

असरार ज़ैदी

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न जाने कितनी रिवायतें मुंहदिम हुईं हैं
बपा जहाँ भी है शोर-ए-महशर खड़ा हुआ हूँ

ये कैसा मंज़र है उस को किस ज़ाविए से देखूँ
कि ख़ुद भी इस दाएरे के अंदर खड़ा हुआ हूँ

अब इस नज़ारे की ताब लाऊँ तो कैसे लाऊँ
वही है मैदान वही है लश्कर खड़ा हुआ हूँ

हज़ार तूफ़ान-ए-बर्क़-ओ-बाराँ हैं साहिलों पर
लिए हुए इक शिकस्ता लंगर खड़ा हुआ हूँ