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न जाने कौन सा मंज़र नज़र से गुज़रा था | शाही शायरी
na jaane kaun sa manzar nazar se guzra tha

ग़ज़ल

न जाने कौन सा मंज़र नज़र से गुज़रा था

रौनक़ रज़ा

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न जाने कौन सा मंज़र नज़र से गुज़रा था
कि मुद्दतों कोई सौदा-ए-सर से गुज़रा था

फिर इस के ब'अद अना का शिकार हो बैठा
मैं एक बार तिरी रह-गुज़र से गुज़रा था

बसी हुई है महक तेरे पैरहन जैसी
अभी अभी कोई झोंका उधर से गुज़रा था

गुज़र सका न तिरे ज़ब्त के हिसार से जो
वो सैल-ए-ग़म भी मिरी चश्म-ए-तर से गुज़रा था

थके थके से वो बाज़ू वो फ़तह-मंद आँखें
सफ़र तवील कोई बाल-ओ-पर से गुज़रा था

मैं नक़्द-ए-जाँ लिए बैठा रहा मगर 'रौनक़'
न जाने दुश्मन-ए-जानी किधर से गुज़रा था