EN اردو
न जाने कब वो पलट आएँ दर खुला रखना | शाही शायरी
na jaane kab wo palaT aaen dar khula rakhna

ग़ज़ल

न जाने कब वो पलट आएँ दर खुला रखना

इफ़्तिख़ार नसीम

;

न जाने कब वो पलट आएँ दर खुला रखना
गए हुए के लिए दिल में कुछ जगह रखना

हज़ार तल्ख़ हों यादें मगर वो जब भी मिले
ज़बाँ पे अच्छे दिनों का ही ज़ाइक़ा रखना

न हो कि क़ुर्ब ही फिर मर्ग-ए-रब्त बन जाए
वो अब मिले तो ज़रा उस से फ़ासला रखना

उतार फेंक दे ख़ुश-फ़हमियों के सारे ग़िलाफ़
जो शख़्स भूल गया उस को याद क्या रखना

अभी न इल्म हो उस को लहू की लज़्ज़त का
ये राज़ उस से बहुत देर तक छुपा रखना

कभी न लाना मसाइल घरों के दफ़्तर में
ये दोनों पहलू हमेशा जुदा जुदा रखना

उड़ा दिया है जिसे चूम कर हवा में 'नसीम'
उसे हमेशा हिफ़ाज़त में ऐ ख़ुदा रखना