न जाने दिल कहाँ रहने लगा है
कई दिन से बदन सूना पड़ा है
किसी जंगल में क्यूँ जाता नहीं है
अरे ये पेड़ क्यूँ तन्हा खड़ा है
मुंडेरों पे कबूतर नाचते हैं
किवाड़ों पर सियह ताला पड़ा है
कोई तो घर की शम्ओं को जलाए
दरीचों में अँधेरा हो चला है
ये दीवारें भी अब गिरने लगी हैं
यहाँ भी वक़्त का साया पड़ा है
चला-चल देख डस जाए न तुझ को
तिरे पीछे तिरा साया लगा है
सनोबर की घनी शाख़ों पे 'अल्वी'
परिंदों का अजब मेला लगा है
ग़ज़ल
न जाने दिल कहाँ रहने लगा है
मोहम्मद अल्वी