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न इब्तिदा-ए-जुनूँ है न इंतिहा-ए-जुनूँ | शाही शायरी
na ibtida-e-junun hai na intiha-e-junun

ग़ज़ल

न इब्तिदा-ए-जुनूँ है न इंतिहा-ए-जुनूँ

सुहैल काकोरवी

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न इब्तिदा-ए-जुनूँ है न इंतिहा-ए-जुनूँ
बस एक फ़ित्ना है कहिए जिसे अदा-ए-जुनूँ

वो गुल की तरह से हँसता है मेरी हालत पर
इरादा अब है कोई और गुल खिलाए जुनूँ

कमाल ये है ख़िरद भी तलाश करती है
बरा-ए-सज्दा-ए-ता'ज़ीम नक़्श-ए-पा-ए-जुनूँ

ये अपनी अपनी तबीअ'त है क्या किया जाए
तुम्हें रुलाये जुनूँ और मुझे हँसाए जुनूँ

वजूद-ए-आशिक़-ओ-मा'शूक़ से जहाँ रौशन
वो नूर-ए-वस्ल है जिस से की जगमगाए जुनूँ

असर ये होता है सूरज भी जाग उट्ठा है
कि छेड़ करती है ग़ुंचों से जब सबा-ए-जुनूँ

वो मुझ से मर्तबा-ए-इश्क़ में बुलंद रहे
ख़ुदा करे वो चला जाए मावरा-ए-जुनूँ

जो तुझ को छूता है अनमोल हो ही जाता है
तिरे वजूद में है यार कीमिया-ए-जुनूँ

'सुहैल' उस को भी है ए'तिराफ़-ए-जज़्बा-ए-शौक़
वो बन गया है मुबारक हो दिल-रुबा-ए-जुनूँ