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न होगा हश्र महशर में बपा क्या | शाही शायरी
na hoga hashr mahshar mein bapa kya

ग़ज़ल

न होगा हश्र महशर में बपा क्या

ज़ेबा

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न होगा हश्र महशर में बपा क्या
न होगा मेरा उन का फ़ैसला क्या

दग़ा देगा मुझे वो पुर-जफ़ा क्या
न आड़े आएगी मेरी वफ़ा क्या

चमन में किस लिए गुल हँस रहे हैं
शगूफ़ा तू ने छोड़ा ऐ सबा क्या

चलो बिगड़ो न मह कहने पर इतना
बशर से हो नहीं जाती ख़ता क्या

उन्हें तर्क-ए-तअल्लुक़ है जो मंज़ूर
मुझे इल्ज़ाम देते हैं वो क्या क्या

वो कब का बह गया सब ख़ून हो कर
लगाएगा कोई दिल का पता क्या

किया है वादा-ए-फ़र्दा किसी ने
न होगी अब क़यामत भी बपा क्या

ख़ुदा की भी नहीं सुनते हैं ये बुत
भला मैं क्या हूँ मेरी इल्तिजा क्या

जफ़ाओं के लिए की थीं वफ़ाएँ
नतीजा दोस्ती का है दग़ा क्या

उन्हीं की सी ये दिल भी कह रहा है
मिसाल-ए-चश्म-ए-जानाँ फिर गया क्या

अजब अंदाज़ से निकला मिरा दम
अदा-ए-यार थी मेरी क़ज़ा क्या

मनाने से नहीं मनता जो कोई
हमारा दम ख़फ़ा होता है क्या क्या

दिए दुख भी तो जी भर के न हम को
फ़लक तू क्या है तेरा हौसला क्या

दग़ा दी हम को दिल ले कर हमारा
यही जुर्म-ए-वफ़ा की थी सज़ा क्या

मुझे क्यूँ आज हिचकी आ रही है
कोई याद आई और उन को जफ़ा क्या

करें शिकवा न साहब दहर का भी
ज़माने में तुम्हीं हो बेवफ़ा क्या

शब-ए-फ़ुर्क़त दग़ा दी ज़ब्त ने भी
दिला सच है किसी का आसरा क्या

वो बे-ख़ुद पा के 'ज़ेबा' को ये बोले
दिल आया आप का मेरा गया क्या