न हो ठिकाना कोई जिस का तेरे घर के सिवा
वो उठ के जाए कहाँ तेरी रहगुज़र के सिवा
दिल-ए-हज़ीं की तमन्ना निगाह के मतलूब
ख़ुदा रखे वो सभी कुछ हैं चारागर के सिवा
रज़ा-ए-दोस्त तब-ओ-ताब सीना-ए-दुश्मन
दुआ को और भी कुछ चाहिए असर के सिवा
वो सोज़-ए-दिल कि जिसे लोग जान कहते हैं
नहीं है और कोई शय तिरी नज़र के सिवा
पयाम-ए-ख़ंदा-ए-गुल और नशात-ए-सुब्ह-ए-चमन
सबा के पास है सब कुछ तिरी ख़बर के सिवा
है जान-ए-बुलबुल-ए-शैदा तो चार तिनकों में
क़फ़स में कुछ भी नहीं एक मुश्त-ए-पर के सिवा
मिला है अज़्मत-ए-आदम के नाम से जो मुझे
वो क़र्ज़ किस से अदा होगा मेरे सर के सिवा
उन्ही को नाला-ए-बुलबुल कहें कि ख़ंदा-ए-गुल
चमन में कुछ भी नहीं शो'ला-ए-शरर के सिवा
सुकून-ए-दिल के लिए हम कहाँ कहाँ न गए
'सरोश' कुछ न मिला ज़हमत-ए-सफ़र के सिवा
ग़ज़ल
न हो ठिकाना कोई जिस का तेरे घर के सिवा
महमूद सरोश