न ही ज़िंदगानी कमाल है न ही मौत मेरा ज़वाल है
कि जवाब जिस का न मिल सका मिरे ज़ेहन में वो सवाल है
जिसे हम समझते हैं मर्ग है वो तो इक तग़य्युर-ए-हाल है
जिए जिस के हिज्र में उम्र-भर वो ही एक लम्हा विसाल है
फ़क़त इक सराब है ज़िंदगी कि हसीं सा ख़्वाब है ज़िंदगी
मिरे ख़्वाब आँखों से छिन गए तो ये ज़िंदगी भी मुहाल है
है अज़ल से यूँ ही तू जूँ का तूँ मुझे रफ़्ता रफ़्ता गुज़ार कर
ये ही सिलसिला शब-ओ-रोज़ का ये जो गर्दिश-ए-मह-ओ-साल है
जो हो बंद आँख तो क्या ख़बर हमें साफ़ आने लगे नज़र
जिसे हम समझते हैं ज़िंदगी फ़क़त एक ख़्वाब-ओ-ख़याल है

ग़ज़ल
न ही ज़िंदगानी कमाल है न ही मौत मेरा ज़वाल है
हक़ीर जहानी