न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा
हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा
मैं जानता था कि ज़हरीला साँप बन बन कर
तिरा ख़ुलूस मिरी आस्तीं से निकलेगा
इसी गली में वो भूका फ़क़ीर रहता था
तलाश कीजे ख़ज़ाना यहीं से निकलेगा
बुज़ुर्ग कहते थे इक वक़्त आएगा जिस दिन
जहाँ पे डूबेगा सूरज वहीं से निकलेगा
गुज़िश्ता साल के ज़ख़्मो हरे-भरे रहना
जुलूस अब के बरस भी यहीं से निकलेगा
ग़ज़ल
न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा
राहत इंदौरी