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न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़ | शाही शायरी
na gul-e-naghma hun na parda-e-saz

ग़ज़ल

न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़

मिर्ज़ा ग़ालिब

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न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़

तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल
मैं और अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़

लाफ़-ए-तमकीं फ़रेब-ए-सादा-दिली
हम हैं और राज़-हा-ए-सीना-गुदाज़

हूँ गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद
वर्ना बाक़ी है ताक़त-ए-परवाज़

वो भी दिन हो कि उस सितमगर से
नाज़ खींचूँ बजाए हसरत-ए-नाज़

नहीं दिल में मिरे वो क़तरा-ए-ख़ूँ
जिस से मिज़्गाँ हुई न हो गुल-बाज़

ऐ तिरा ग़म्ज़ा यक-क़लम-अंगेज़
ऐ तिरा ज़ुल्म सर-ब-सर अंदाज़

तू हुआ जल्वागर मुबारक हो
रेज़िश-ए-सज्दा-ए-जबीन-ए-नियाज़

मुझ को पूछा तो कुछ ग़ज़ब न हुआ
मैं ग़रीब और तू ग़रीब-नवाज़

'असद'-उल्लाह ख़ाँ तमाम हुआ
ऐ द़रीग़ा वो रिंद-ए-शाहिद-बाज़