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न गर्मी रखे कोई उस से ख़ुदाया | शाही शायरी
na garmi rakhe koi us se KHudaya

ग़ज़ल

न गर्मी रखे कोई उस से ख़ुदाया

जुरअत क़लंदर बख़्श

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न गर्मी रखे कोई उस से ख़ुदाया
शरारत से जी जिस ने मेरा जलाया

न बेचैन हो कोई अब उस की ख़ातिर
मिरा चाहना जो न ख़ातिर में लाया

बहम देख दो शख़्स हो वो भी मुज़्तर
अकेला मैं जिस के लिए तिलमिलाया

फिरे जुस्तुजू में न अब कोई उस की
मुझे जिस ने गलियों में बरसों फिराया

न भूले से याद अब करे कोई उस को
मिरा याद करना भी जिस ने भुलाया

न ख़ुश हो अब उस पास बैठे से कोई
हमें कर के आज़ुर्दा जिस ने उठाया

ख़रीदार पैदा न हो कोई उस का
कि दिल बेच कर हम ने दुख जिस से पाया

तहय्युर हो देख आईना उस को जिस ने
हमें कर के हैराँ न मुखड़ा दिखाया

लगे लाग उस से किसी की न या-रब
हमारी लगी को न जिस ने बुझाया

कहूँ दास्ताँ मैं गर अपनी और उस की
तो हैरान हो सुन के अपना पराया

कि पहले की इज़हार ख़ुद उस ने उल्फ़त
न आया तो सौ बार घर से बुलाया

जताईं वो बातें जिन्हें सेहर कहिए
दिखाया वो आलम कि वहशी बनाया

रखी बे-तकल्लुफ़ मुलाक़ात चंदे
ब-मन्नत मुझे पास पहरों बिठाया

किसी का न इक हर्फ़ ख़ातिर में गुज़रा
उसे गरचे लोगों ने क्या क्या पढ़ाया

सो अब वो झलक तक दिखाता नहीं है
गया मैं जो घर से तो दर तक न आया

लगावट ये कुछ कर के फिर क्या ग़ज़ब है
मिरा लग गया दिल तो पर्दा लगाया

ब-तग़ईर-ए-बहर और 'जुरअत' ग़ज़ल कह
कि ये तुर्फ़ा मज़मून तू ने सुनाया