न फ़ासलों में ख़लिश न राहत है क़ुर्बतों में
मैं जी रहा हूँ अजीब बे-रंग साअ'तों में
तुझे ग़रज़ क्या कोई भी मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू हो
हर इक हक़ीक़त बदल चुकी जब हिकायतों में
मिरी वफ़ा के सफ़र की तकमील हो तो कैसे
है तेरा मेहवर तिरी अधूरी मोहब्बतों में
कोई तो मेरे वजूद की सरहदें बताए
भटक रहा हूँ मैं कब से अपनी ही वुसअतों में
वो एक साया था उम्र भर की थकन का हामिल
वो एक साया जो खो गया है मसाफ़तों में
मैं ज़ख़्म खा के भी बद-गुमाँ हो सका न 'राशिद'
अजीब रंग-ए-ख़ुलूस था उस की नफ़रतों में

ग़ज़ल
न फ़ासलों में ख़लिश न राहत है क़ुर्बतों में
मुमताज़ राशिद