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न दिन पहाड़ लगे अब न रात भारी लगे | शाही शायरी
na din pahaD lage ab na raat bhaari lage

ग़ज़ल

न दिन पहाड़ लगे अब न रात भारी लगे

शकेब बनारसी

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न दिन पहाड़ लगे अब न रात भारी लगे
न आए नींद तो आँखों को क्या ख़ुमारी लगे

ख़ुशी नहीं थी तो ग़म से निबाह कर लेते
किसी के साथ तबीअत मगर हमारी लगे

कोई न हो कभी अहबाब के करम का शिकार
मिरी तरह न किसी दिल पे ज़ख़्म-ए-कारी लगे

हमें तड़पता हुआ ग़म में छोड़ने वाले
ख़ुदा करे कि तुझे ज़िंदगी हमारी लगे

नफ़स नफ़स हमें रोज़-ए-जज़ा से बढ़ कर है
वो शौक़ से जिए जिस को हयात प्यारी लगे

वो मर न जाए तो फिर और क्या करे ऐ 'शकेब'
वजूद अपना जिसे ज़िंदगी पे भारी लगे