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न दिन ही चैन से गुज़रा न कोई रात मिरी | शाही शायरी
na din hi chain se guzra na koi raat meri

ग़ज़ल

न दिन ही चैन से गुज़रा न कोई रात मिरी

शाइक़ मुज़फ़्फ़रपुरी

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न दिन ही चैन से गुज़रा न कोई रात मिरी
वो सब्ज़ बाग़ दिखाती रही हयात मिरी

मिरे वजूद को रहने दे संग की सूरत
किसी नज़र में तो आईना होगी ज़ात मिरी

तुझे भी दिल में फ़राग़त से मैं समो न सकूँ
कुछ ऐसी तंग नहीं है ये काएनात मिरी

करूँ तो कौन सा उनवाँ अता करूँ उस को
बटी हुई है कई क़िस्तों में हयात मिरी

मिरी शिकस्त-ए-अना तोड़ देगी ख़ुद मुझ को
सजा के लोग निकालेंगे जब बरात मिरी

समेटता हूँ मैं नाकामियों को जब 'शाइक'
मिरा मज़ाक़ उड़ाती हैं ख़्वाहिशात मिरी