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न देखा जामा-ए-ख़ुद-रफ़्तगी उतार के भी | शाही शायरी
na dekha jama-e-KHud-raftagi utar ke bhi

ग़ज़ल

न देखा जामा-ए-ख़ुद-रफ़्तगी उतार के भी

सिद्दीक़ शाहिद

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न देखा जामा-ए-ख़ुद-रफ़्तगी उतार के भी
चली गईं तिरी यादें मुझे पुकार के भी

ये ज़िंदगी है उसे तल्ख़ तुर्श होना है
सऊबतों के ज़रा देख दिन गुज़ार के भी

हबाब-ए-ज़ीस्त न दस्त-ए-क़ज़ा से टूट सका
हयात बाक़ी रही क़ब्र में उतार के भी

तिरे ग़ुरूर के है रू-ब-रू ये ख़ुश-शिकनी
झुका के सर न हुए पेश शहरयार के भी

बदी न रोकें पे नफ़रत तो कर ही लेते हैं
मुज़ाहिरे हैं ये कुछ अपने इख़्तियार के भी

कभी गले भी मिलो आ के शाख़-ए-गुल की तरह
अदा तो कर दिए हक़ हम ने इंतिज़ार के भी

क़ुबूल ओ रद के सभी इख़्तियार उस के थे
मगर मैं ख़ुश था तमन्ना को उस पे वार के भी

बहार हो तो लहू में उतरती है 'शाहिद'
हमें तो छू के न गुज़रे ये दिन बहार के भी