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न दे साक़ी मुझे कुछ ग़म नहीं है | शाही शायरी
na de saqi mujhe kuchh gham nahin hai

ग़ज़ल

न दे साक़ी मुझे कुछ ग़म नहीं है

शौक़ बहराइची

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न दे साक़ी मुझे कुछ ग़म नहीं है
ये कुल्हड़ कोई जाम-ए-जम नहीं है

वो रू-ए-ख़शमगीं कुछ कम नहीं है
न हो गर हाथ में बल्लम नहीं है

बस इक बहर-ए-बनी-आदम नहीं है
जहाँ में वर्ना गेहूँ कम नहीं है

नक़ाब उल्टी है ये कह कर किसी ने
कि अब तो कोई ना-महरम नहीं है

हज़ारों चाहने वाले हैं उन के
कम उन की आज कल इन्कम नहीं है

जसामत कह रही है ये किसी की
कोई शय और जुज़ बलग़म नहीं है

मुदावा क्या हो हिर्स-ए-राहबर का
कहीं इस ज़ख़्म का मरहम नहीं है

बने तो सैकड़ों आईन लेकिन
किसी आईन में कुछ दम नहीं है

कहाँ रहबर में जौहर रहबरी के
कि पानी ही तो है ज़मज़म नहीं है

हमारी जुरअतों की दाद देता
मगर अब क्या करें रुस्तम नहीं है

अदाएँ कुछ तो उन में आज की हैं
मगर पूरा अभी कोरम नहीं है

लिखा है बज़्म-ए-इशरत में जो हर-सू
नवेद-ए-ग़म है वो वेल्कम नहीं है

सिवाए मक्र-ओ-कैद ओ हिर्स ओ फ़ितरत
मोहब्बत का यहाँ सिस्टम नहीं है

मोहब्बत में तसन्नो हो तो समझो
वो लौंडी है कोई बेगम नहीं है

जिसे समझी है सादा-लौह दुनिया
है बेहद काइयाँ बूदम नहीं है

नज़र आते हैं जो क़तरे गुलों पर
किसी की राल है शबनम नहीं है

ज़मीन ओ आसमाँ लर्ज़ां हैं जिस से
मिरे नाले हैं एटम-बम नहीं है

नज़र आता नहीं वो रू-ए-रंगीं
कहीं बाज़ार में शलजम नहीं है

कहाँ औरत नहीं है सर-बरहना
कहाँ अब पर्दे का मातम नहीं है

फ़रेब-ए-हज़रत-ए-वाइज़ न पूछो
इबारत साफ़ है मुबहम नहीं है

चुरा लें जिस को दुज़दीदा निगाहें
ये दिल वो दिलरुबा ख़ानम नहीं है