न चश्म-ए-तर बताती है न ज़ख़्म-ए-सर बताते हैं
वो इक रूदाद जो सहमे हुए ये घर बताते हैं
मैं अपने आँसुओं पर इस लिए क़ाबू नहीं रखता
कि मेरे दिल की हालत मुझ से ये बेहतर बताते हैं
उन्हें दिल की सदाओं पर भला कैसे यक़ीं होगा
ये आँखें तो वही सुनती हैं जो मंज़र बताते हैं
यक़ीनन फिर किसी ने जुरअत-ए-पर्वाज़ की होगी
यहाँ चारों तरफ़ बिखरे हुए ये पर बताते हैं
कहाँ गुम हो गया है रास्ते में वो मुसाफ़िर भी
न कुछ रहज़न बताते हैं न कुछ रहबर बताते हैं
ज़रा ये धूप ढल जाए तो उन का हाल पूछेंगे
यहाँ कुछ साए अपने आप को पैकर बताते हैं
तुझे भी 'शाद' अपनी ज़ात से बाहर निकलना है
सदफ़ की क़ैद से निकले हुए गौहर बताते हैं
ग़ज़ल
न चश्म-ए-तर बताती है न ज़ख़्म-ए-सर बताते हैं
ख़ुशबीर सिंह शाद