न अपने बस में है रोना न हाए हँस देना
कोई रुलाए तो रोना हँसाए हँस देना
वो बातों बातों में भर आना अपनी आँखों का
वो उस का देख के सूरत को हाए हँस देना
किसी के ज़ुल्म हैं कुछ ऐसे बे-महल हम पर
कि जी में आता है रोने की जाए हँस देना
वो ख़ुद हँसाए तो कम-बख़्त दिल ज़िदीले दिल
ये वज़्अ'-दारी है क्यूँ हाए हाए हँस देना
उदूल-ए-हुक्मी-ए-दर्द-ए-जिगर कि अब ऐ चश्म
जो लाख बार वो उठ कर रुलाए हँस देना
कोई जो तुझ पे हँसे बर्क़-पाश आलम-सोज़
तो फिर हर एक पे तू भूल जाए हँस देना
वो हम से पूछते हैं तुम हमारे आशिक़ हो
जवाब क्या है अब उस के सिवाए हँस देना
'सफ़ी' कहाँ की शिकायत कहाँ का ग़म-ग़ुस्सा
किसी का ऐन लड़ाई में हाए हँस देना

ग़ज़ल
न अपने बस में है रोना न हाए हँस देना
सफ़ी औरंगाबादी